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Table of Contents
आधुनिक काल की प्रमुख राजनीतिक विचारधाराएंं Political Ideologies of the Modern Period
1. पश्चिमी विचारधारा
• उदारवाद
* राष्ट्रवाद
• मार्क्सवाद
* अतिवाद
• समाजवाद
2. भारतीय विचारधारा
• पुनरुत्थानवाद
* साम्राज्यवाद
• गांधीवाद
उदारवाद (Liberalism)
उदारवाद इंग्लैण्ड की विचारधारा है जो 17वीं शताब्दी में विकसित हुई । उदारवाद के चार आधार है ।
• व्यक्ति को स्वतंत्र होना चाहिये जिससे वह अपना विकास कर सके।
* सभी को स्वयं के विकास के लिये समान अवसर दिया जाना चाहिये ।
• अहस्तक्षेप का सिद्धान्त
• सरकार की सीमित भूमिका
राष्ट्रवाद (Nationalism)
राष्ट्रवाद के दो पहलू है ।
1. भावना
2. अवधारणा
जिसके तहत लोगों में एकता की भावना हो जब ये भावना स्वशासन के मांग के साथ जुड़ जाती है तब राष्ट्र राज्य का उदय होता है, यह भी एक पश्चिमी विचारधारा है जो यूरोप में 15 वी शताब्दी में आरम्भ हुयी ।
भारत मे इस विचारधारा के दो प्रमुख पहलू हैं।
• कांग्रेस के प्रारम्भिक नेताओं के विचार जो पश्चिम विचारधारा को अपनाते हुये भारत में एक राष्ट्र की चर्चा कर रहे थे, यह विचार सिर्फ अभिजनों तक सीमित था ।
समाजवाद (Socialism)
एक मुख्य विचारधारा के रूप में भारत में इसका प्रवेश 1930 में हुआ, 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ । इससे पहले भी लोगो ने समाजवादी विचार व्यक्त किये विवेकानन्द भारत में पहले समाजवादी माने जाते हैं।
इस समाजवाद में तीन प्रमुख विचारों का मिश्रण है।
1. मावसवादी विचारधारा समर्थक – आचार्य नरेंद्रदेव
2. पश्चिमी समाजवादी/ फेबियनवादी/ लोकतांत्रिक समाजवाद समर्थक – नेहरू
3. गाँधीवादी समाजवाद समर्थक राम मनोहर लोहिया,जय प्रकाश नारायण
* रुसी समाजवाद केन्द्रीकरण पर आधारित है वहाँ लोहिया भारत में एक विकेन्द्रित प्रशासन की स्थापना की बात करते है।
ग्राम- मण्डल – प्रांत – केंद्र (चौस्तम्भ)
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साम्यवाद (Communism)
भारत में साम्यवाद के सबसे प्रबल प्रमुख प्रतिपादक एम.एन. रॉय हैं जो अपने जीवन काल में’ (1916-1940 ) तक साम्यवाद के समर्थक थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारत में साम्यवादी दल की स्थापना 1928 में प्रेरणा है दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त इन्होंने मार्क्सवादी विधि का प्रयोग करते हुये भारतीय समाज का विश्लेषण किया जिसमें उन्होंने कहा उपनिवेशवाद के परिणामस्वरूप भारत में पूँजीवाद स्थापित हो गया है। इस प्रकार आधुनिक भारत में 4 वर्गों का उदय हुआ को दो वर्ग जो उपनिवेशवाद के कारण स्थापित हुये।
1. पूंजीपति वर्ग
2. बुद्धिजीवी वर्ग
ये दोनो वर्गों का विरोध करते हैं। इसके अतिरिक्त भारत में किसान, कृषक, मजदूर वर्ग भी है। M.N.Roy पहले व्यक्ति थे जिन्होने घोषित किया कि स्वतंत्रता आन्दोलन दो पूंजीपतियों की लड़ाई है। पहला भारतीय पूँजीवादी दूसरे ब्रिटिश पूँजीपति । भारतीय पूँजीपति ब्रिटिश पूजीपति से असन्तुष्ट हैं क्योंकि वह ब्रिटेन की प्रश्रय देता है स्वतंत्रता आन्दोलन से भारतीय पूँजीपतियों को लाभ मिलेगा व ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग को हटा दिया जायेगा इससे सर्वहार को लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि उनकी स्थिति दयनीय बनी रहेगी।
अतिवाद /अमूलचूल परिवर्तनवाद (Radicalism)
ये विचारधारा सबसे पहले 17वी सदी में उत्पन्न हुई। इसे वामपंथी व मार्क्सवादी विचारधारा से जोड़ा जाता भारत में इसके दो पहलू है।
1. सामाजिक अतिवाद
इसके समर्थक – ज्योतिबा फूले, बी०आर अम्बेडकर पेरियार इन लोगों ने समाज में समानता के लिये वर्ग व्यवस्था की स्थापना की तथा वर्ग का विरोध किया तथा ब्राम्हण विरोधी अवधारणा बनायी।
अम्बेडकर ” दलितो का उध्दार तभी हो सकता है जब वर्ण की व्यवस्था पूरी तरह नष्ट हो जाये पेरियार ” बाम्हण शासक हैं । यही आर्य वंश के हैं, द्रविड़ वर्ग आर्य वंश के नहीं हैं। इसलिये दक्षिण भारत में ब्राम्हण का वर्चस्व मूलतः आर्यवंश का प्रभुत्व है।
2. राजनीतिक अतिवाद
यह क्रांतिकारियों की विचारधारा में दिखायी देता है। जिसने दो विचारों को जन्म दिया।
• हिंसा के द्वारा ब्रिटिश शासन का विरोध
• हिंसा के द्वारा ब्रिटिश भारतीय जनता में पौरुष का उजागर
यह विचारधारा वामपंथी के साथ जुडकर वर्तमान में नक्सलवाद के रूप में दिखायी देती है।
भारत में विकसित विचारधारा
भारत में विकसित तीन प्रमुख विचारधाराएं निम्निलिखित है।
● पुनरुत्थानवाद (Revivalism )
* साम्प्रदायिकता Religious communism (धर्म पर आधारित राष्ट्रवाद
● गांधीवाद (Gandhism)
पुनरुत्थानवाद
पुनरुत्थानवाद 19 वी शताब्दी में विवेकानन्द व दयानन्द सरस्वती के विचारों से उत्पन्न हुआ। दयानन्द सरस्वती ने वैदिक जीवन को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया और कहा आधुनिक विज्ञान के तत्व हमारे वेदों में पाये जाते हैं। हमें पश्चिम से प्रेरणा न लेकर अपने अतीत से प्रेरणा लेनी चाहिये क्योंकि हमारा अतीव गैरवमय है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि पश्चिम संस्कृति से भारत की संस्कृति श्रेष्ठ है।
इन लोगो का विचार था कि प्राचीन विचार, भारतीय संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है। हमें पश्चिम कोई सीख नहीं है सकता, बाद में यही विचारधारा हिन्दू महासभा ने उठायी , जिन्होंने आगे धर्म को प्रचारित प्रसारित करने का प्रयास किया।
उग्रवादियों ने भी पुनरूत्थानवादी विचारों का प्रचार किया। क्योंकि उन्होंने अतीत से प्रेरणा ली प्राचीन सिद्धातो को महत्व दिया परन्तु भारतीय व पश्चिमी विचारधारा को जोडने का प्रयास किया ।
संप्रदायवाद (Religious Nationalism)
इसका अर्थ है धर्म विशेष के विचारों को महत्व देना उसमें एकता स्थापित करने का प्रयास करना व दूसरे धार्मिक समुदायों को अलग रखने का प्रयास करना। ये विचारधारा 20वीं शताब्दी में हिन्दू महासभा के विचारों में दिखाई पड़ती है। जिसने नारा दिया- “हिन्दी हिन्दू, हिन्दुस्तान इसी को वी०डी० सावरकर ( Hindutva’ Who is the hindu ,1923) इंग्लश में लिखी) ने यह घोषित करने का प्रयास किया कि जो भारत को पितृभूमि व पूण्यभूमि मानते है वही इस देश के निवासी है। और उन्होंने इस प्रकार मुस्लिमों को बाहर रखा।
उसी के विपरीत विचार मुस्लिमों की विचारधारा में पाया जाता है। यह सैय्यद अहमद खान के विचारों से प्रारम्भ होता है। वे कहते हैं कि भारत में जब बहुमत का शासन होगा तो मात्र हिन्दूओं का शासन होगा इसलिये भारत में समान मताधिकार नहीं आना चाहिये 1928 के बाद मो. अली जिन्ना ने इसका बहुत प्रचार प्रसार किया इसक साथ द्विराष्ट का सिद्धान्त विकसित हुआ जो मो.इकबाल ने 1930 में प्रस्तुत किया जिसके रूप में इन्होंने मुसलमानों के लिये एक अलग देश की मांग की।
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गांधीवाद
गांधीवाद अपने में एक नवीन विचारधारा है क्योंकि जैन धर्म , हिन्दू आदर्शों व भारतीय सभ्यता पर आधारित है। महात्मा गाँधी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अहिंसा को एक राजनीतिक औजार बनाया है। इन्होंने कहा व्यक्ति किसी विचारधारा से न प्रभावित होकर सत्य से प्रेरित हो गाँधी पश्चिमी लोकतंत्र के समर्थक नहीं थे। पश्चिमी लोकतंत्र के विपरीत उन्होंने भारत में ऐसे लोकतंत्र की कल्पना की जो ग्राम पंचायत होगी । जिसमे गाँव सबसे महत्वपूर्ण ईकाई होगी पर आधारित क्योकि गाँव एक छोटा समुदाय होता है जिसमे शासित व शासको के साथ सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं व अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करा सकते हैं। गांधी ने कहा पश्चिमी लोकतंत्र में व्यक्ति स्वयं को असहाय समझते हैं वहीं उनके लोकतंत्र में लोग स्वयं को सबल समझेंगे। Political Ideologies of the Modern Period