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सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization)
सिंधु सभ्यता (Indus Valley Civilization) एक नगरीय एवं कांस्य युगीन सभ्यता है, जो भारत की प्रथम नदी घाटी सभ्यता तथा नगरीय सभ्यता मानी जाती है। यह त्रिभुजाकार रूप में 13 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली सभ्यता है। इसका विस्तार अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत में है तथा इसका सर्वाधिक विस्तार भारत (917 स्थल), पाकिस्तान (481 स्थल) में है।
अफगानिस्तान के दो क्षेत्र शुर्तगोही व माण्डेकीगाह से सिंधु सभ्यता के प्रमाण प्राप्त होते हैं।
सिंधु सभ्यता का विस्तार-
- उत्तर – माण्डेराव, जिला-अखनुर (जम्मू एवं कश्मीर)
- दक्षिण – दैयमाबाद जिला-अहमदनगर (महाराष्ट्र)
- पूर्व – आलमगीरपुर, जिला-मेरठ (उत्तर प्रदेश)
- पश्चिम – सुत्कागेंडोर, ब्लुचिस्तान, पाकिस्तान
- उत्तर-दक्षिण – 1400 किमी. (लम्बाई)
- पूर्व-पश्चिम- 1600 किमी. (चौड़ाई)
स्थापना :-
सिंधु सभ्यता की स्थापना का श्रेय चार (4) जातियों को जाता है।
- भूमध्य सागरीय/ द्रविड़ = इनकी संख्या सर्वाधिक प्राप्त होती है
- प्रोटोऑस्ट्लाइटड
- मंगोल
- अल्पाईन = इनकी संख्या सबसे कम प्राप्त होती है।
सिंधु सभ्यता की स्थापना का सर्वाधिक श्रेय भूमध्य सागरीय/द्रविड़ों को जाता है।
समय:-
सिंधु सभ्यता का सर्वप्रथम समय निर्धारण जाॅन मार्शल द्वारा ईरान के शिलालेख के आधार पर किया गया।
- जाॅन मार्शल – 3250 ई.पू. – 2750 ई.पू.
- स्ट्रअर्ट पिग्टन – 2500 ई.पू. – 1500 ई.पू.
- N.C.E.R.T. – 2600 ई.पू. – 1900 ई.पू.
- C-14 कार्बन विधि – 2350 ई.पू. – 1750 ई.पू. (+/- 50)
C-14 कार्बन विधि एक वैज्ञानिक विधि है जो वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित है।
सिंधु सभ्यता की खोज यात्रा:-
सिंधु सभ्यता के प्रथम स्थल हड़प्पा सभ्यता स्थल के बारे में चार्ल्स मैशन द्वारा 1826 ई. में बताया गया।
1853-56 ई. में रेल इंजीनियर जाॅन बर्टन एवं विलियम बर्टन ने यहां किसी नगर होने की पुष्टि की तथा अलेकजैण्डर कनिघंम के प्रयासों से 1861-62 ई. में भारतीय पुरातत्त्व विभाग की स्थापना हुई तथा इनके निर्देशन में हड़प्पा स्थल का सर्वेक्षण कार्य किया गया। अलेकजैण्डर कनिंघम को ही भारतीय पुरातत्व का जनक कहा जाता है।
1902 ई. में जाॅन मार्शल पुरातत्व के निदेशक बने। इन्हीें के निर्देशन में 1921 में राय बहादुर दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा स्थल एवं 1922 में राखलदास बनर्जी द्वारा मोहनजोदडो स्थल की खोज की गई है। इनकी खोज के पश्चात् ही इसे सिंधु सभ्यता नाम दिया गया। जाॅन मार्शल को ही सम्पूर्ण विश्व को सिंधु सभ्यता के परिचित कराने का श्रेय जाता है।
स्टुअर्ट पिग्टन ने हड़प्पा एवं मोजनजोदड़ो को एक विस्तृत साम्राज्य की दो जुड़वां राजधानियां बताया है।
सिंधु सभ्यता का परिचय एवं विशेषताएं
नगर:-
सिंधु सभ्यता में दो भागों में विभाजित नगर की प्राप्ति होती है-
- पश्चिम- दुर्गयुक्त, ऊंचाई पर स्थित, उच्च वर्ग के निवास हेतु।
- पूर्व- आवासीय, निचाई पर स्थित, निम्न वर्ग के निवास हेतु।
दुर्ग एवं आवास अलग-अलग सुरक्षा प्राचीरों से घिरे होते थे।
सिंधुवासी युद्ध प्रिय न होकर शांति प्रिय थे। सुरक्षा प्राचीरों का निर्माण चोरी से बचने के लिए करते थे।
सड़कें:-
सिंधु सभ्यता के नगरों में ऑक्सफोर्ड पैटर्न/ग्रीड पैटर्न/जाल पद्धति से सड़कों का निर्माण किया जाता था, जो एक-दूसरे को समकोण (90 डिग्री) पर काटती थी। मुख्य सड़कें 9 से 34 फीट तक चैड़ी होती थी तथा गलियां/गौण सड़कें 1 से 2.2 मीटर चैड़ी होती थी।
मुख्य सड़क- उत्तर-दक्षिण (पक्की)
गौण सड़क/गलियां- पूर्व से पश्चिम (कच्ची)
अपवाद-
(1) धौलाविरा- तीन भागों में विभाजित नगर की प्राप्ति।
(2) चुन्हदड़ों- दुर्ग का अभाव
(3) लोथल- एक ही सुरक्षा प्राचीर से घिरे हुए दुर्ग व आवास।
(4) बनावली- ताराकिंत पद्धति (Star Pattern) से निर्मित सड़क।
मकान:-
सिंधुवासियों द्वारा मकानों का निर्माण कच्ची-पक्की ईंटों से किया जाता था। सामान्य ईंट 4ः2ः1 के अनुपात, 28×14×7 बउण् आकार में निर्मित होती थी, परन्तु प्राचीरों की ईंटें 40×20×10 आकार में निर्मित होती थी।
सिंधुवासियों द्वारा मुख्यतः आयताकार, वर्गाकार व स् आकार की ईंटों का निर्माण किया जाता था।
मकान की चुनाई इंग्लिश बाॅड पद्धति (एक दूसरे को काटती हुई ईटों से चुनाई) के आधार पर की जाती थी।
सिंधु सभ्यता में मकानों के दरवाजे मुख्य सड़क पर न खुलकर पिछे गलियों में खुलते थे।
अपवाद-
- लोथल- मुख्य सड़क पर खुलते दरवाजे।
- चन्हुदड़ो- वक्राकार ईंटों की प्राप्ति।
जल निकास प्रणाली:-
जल निकास प्रणाली सिंधु सभ्यता की सर्वश्रेष्ठ विशेषता है, जिसके तहत कच्ची-पक्की ईंटों से ढकी हुई नालियों का निर्माण किया जाता था जिनमें जिप्सम व चूने का पलास्टर होता तथा नालियों की सफाई हेतु चैम्बर भी बने होते।
अपवाद-
- कालीबंगा- लकड़ी की नालियों के प्रमाण।
- बनवाली- जल निकास प्रणाली का अभाव।
- लोथल- सर्वश्रेष्ठ जल निकास प्रणाली के प्रमाण।
समाज:-
सिंधु सभ्यता में मातृसत्तात्मक परिवार की व्यवस्था विद्यमान थी। अर्थात् माता ही परिवार की मुखिया होती, पिता परिवार के भरण-पोषण का कार्य करता। यहां से बड़े मकान प्राप्त हुयें हैं जिस आधार पर संयुक्त परिवार की व्यवस्था विद्यमान होने के प्रमाण मिलते हैं।
समाज मुख्यतः दो भागों में विभाजित था- (1) उच्च वर्ग- पुरोहित, व्यापारी (2) निम्न वर्ग- कृषक, श्रमिक
पुरोहित वर्ग का समाज में मुख्य स्थान था तथा ये सम्भवतः प्रशासन में भी शामिल थे।
शवाधान:-
सिंधु सभ्यता में तीन प्रकार के शवाधान का प्रचलन था-
- आंशिक शवाधान
- दाह संस्कार/पूर्ण शवाधान
- कलश शवाधान
सिंधु सभ्यता में शव को उत्तर-दक्षिण दफनाने की प्रथा प्रचलित थी।
खान-पान :- सिंधुवासी शाकाहारी व मांसाहारी थे। गेहूं व जौ इनका मुख्य खाद्यान्न था, मांसाहार के लिए भेड़, बकरी, खरगोश, हिरण आदि भी पालते थे।
वस्त्र/पहनावा :- सिंधुवासियों द्वारा सिले हुए वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। मुख्यतः सूती, ऊनी व चमड़े से बने वस्त्रों का प्रयोग करते थे। सूती वस्त्र सर्वाधिक उपयोग में आता, जिसके प्रमाण प्राप्त होते हैं।
श्रृंगार :- सिंधुवासी शृंगार प्रिय थे। स्त्री व पुरूषों द्वारा समान रूप से आभूषणों का प्रयोग किया जाता था, जो सोने, चांदी व तांबे अथवा पत्थर से बने होते थे एवं मिट्टी के मनको से बने आभूषणों का प्रयोग भी किया जाता था।
धार्मिक व्यवस्था:-
मार्शल ने सिंधु सभ्यता में पूर्ववर्ती हिन्दु धर्म की स्थापना का उल्लेख किया है। भारत में मूर्ति पूजा सिंधु सभ्यता की ही देन मानी जाती है, परन्तु सिंधुवासी मंदिर निर्माण से परिचित नहीं थे, विशेषतः धार्मिक अनुष्ठान हेतु मूर्तियों का निर्माण किया जाता। सिंधुवासियों द्वारा मुख्यतः प्रकृति देवी/मातृदेवी की पूजा की जाती एवं देवताओं में मुख्यतः पशुपति की पूजा की जाती थी, जिसे मार्शल ने आद्यशिव की संज्ञा दी है।
- पूज्य पशु- एक सींगी
- पूज्य पक्षी- बत्तख
- पूज्य वृक्ष- पीपल
सिंधुवासी यज्ञ, अनुष्ठान व कर्मकाण्ड से परिचित थे एवं भूत-प्रेत, जादू-टोने में भी विश्वास रखते थे। यहां से ताबिजों के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं तथा सिंधु सभ्यता में बलिप्रथा का भी प्रचलन था। लिंग एवं योनि की पूजी सिंधु सभ्यता की देन मानी जाती है परन्तु यहां से चपटे एवं नुकीले लिंगों के प्रमाण प्राप्त होते हैं। सिंधुवासियों द्वारा वास्तुदोष स्वास्तिक () के चिन्ह का प्रयोग किया जाता था।
आर्थिक व्यवस्था:-
सिंधु सभ्यता की अर्थ व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि एवं पशुपालन था। मुख्यतः अक्टूबर-नवम्बर में बाढ़ का पानी उत्तर जाने के पश्चात् कृषि कार्य किया जाता था तथा मार्च-अप्रैल मंे फसल की कटाई की जाती थी, कृषि कार्य लकड़ी के हलांे द्वारा किया जाता एवं फसल की कटाई हेतु पत्थर के हासियों का प्रयोग होता था।
सिंधुवासी उन्नत कृषि से परिचित थे एवं क्राॅस पद्धति से खेती करते, गेहूं व जौ मुख्य फसल थी तथा चना, मटर, सरसों, राई, तिल, टमाटर, खरबूज, तरबूज व कपास आदि फसल भी बोई जाती थी।
रागी से सिंधु सभ्यता के लोग अपरिचित थे।
कपास की खेती विश्व को सिंधु सभ्यता की ही देन मानी जाती है। इसी कारण यूनान के लोग कपास को सिण्डोन के नाम से सम्बोधित करते है ।
सिंधुवासी गाय, बैल, भेड़, बकरी व कुत्ता आदि पालते थे तथा गेंडा, हाथी, बाघ, हिरण, भैंसा आदि से परिचित थे परन्तु सिंह व घोड़े से अपरिचित थे।
अपवाद-
- मोहनजोदड़ो – घोड़े के दांतों की प्राप्ति
- लोथल – घोड़े की मृण मूर्तियां प्राप्त
- सुरकोटड़ा – घोड़े की अस्थियां प्राप्त
कुबड़ वाला बैल सर्वाधिक पाले जाने वाला पशु था तथा एक सिंगी पशु सबसे पूज्य पशु था। सिंधु सभ्यता से गाय के मूर्ति व चित्र प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं।
व्यापार:-
व्यापार सिंधु सभ्यता की उन्नति का मुख्य आधार व्यापार था। सिंधु सभ्यता में देशी व विदेशी व्यापार का प्रचलन था। विदेशी व्यापार जल मार्ग से किया जाता था। फारस, ईरान (मेसोपोटामिया) अफगान, मिश्र आदि से व्यापारिक सम्बन्धों के प्रमाण प्राप्त होते हैं। दिलमूल (बहरीन द्वीप) तथा ओमान (माकन) द्वीप विदेशी व्यापार के मुख्य केन्द्र थे।
देशी व्यापार गुजरात, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक से किया जाता है, जिसके लिए स्थल व नदी मार्गों का प्रयोग किया जाता था।
व्यापार हेतु वस्तु विनिमय की प्रणाली का प्रचलन था।
आयात की जाने वाली वस्तुएं | स्थल |
---|---|
टिन, चांदी | ईरान, अफगानिस्तान |
तांबा | खेतड़ी (राजस्थान), ब्लूचिस्तान |
सोना | ईरान, अफगानिस्तान, दक्षिण भारत (कर्नाटक) |
फिरोजा | ईरान |
हरा अमेजन | नीलगिरि की पहाड़ियां |
सीसा | ईरान, अफगानिस्तान, राजस्थान, दक्षिण भारत |
लाजवर्द (वैदूर्य) | बदख्शां (अफगानिस्तान), मेसोपोटामिया |
शिलाजीत | हिमालय क्षेत्र |
लाल गोमेद | राजस्थान, काठियावाड़, कश्मीर |
नील रत्न | बदख्शां (अफगानिस्तान) |
हरित मणि | दक्षिण भारत |
सेलखड़ी | ब्लूचिस्तान, राजस्थान, गुजरात |
शंख एवं कौड़ियां | सौराष्ट्र (गुजरात), दक्षिण भारत |
मोहरें:- सिंधु सभ्यता के लोग पहचान चिन्ह के रूप में सेलखड़ी मिट्टी से बनी मोहरों का प्रयोग करते थे, जो आयताकार, वर्गाकार, वृत्ताकार व बटन के आकार में निर्मित होती थी। सिंधु सभ्यता में 2000 से अधिक मोहरें प्राप्त हुई है, जिनमें सर्वाधिक मोहरें मोहनजोदड़ो व सर्वाधिक अलीकृंत मोहरें हड़प्पा से प्राप्त हुई है।
लिपि:- सिंधुवासी लिपि से परिचित थे तथा इनके द्वारा भावचित्रात्मक/ब्रुस्ट्रोफेदन/सर्पीलाकार लिपि का प्रयोग किया जाता था। इस लिपि में प्रथम पंक्ति दायें-बायें व द्वितीय पंक्ति बायें-दायें लिखी जाती थी। सिंधु लिपि के प्रमाण मोहरों व मृदभाण्डों (मिट्टी के बर्तन) से प्राप्त होते हैं।
सिंधु लिपि में 40 से अधिक वर्ण व 250 से अधिक चित्राक्षर प्राप्त होते हैं। सर्वाधिक वर्ण अंग्रेजी के ष्न्ष् के समान तथा सर्वाधिक चित्र मछली के प्राप्त होते हैं। सिंधु लिपि को आज तक नहीं पढ़ा जा सका, इसे सर्वप्रथम पढ़ने का प्रयास वेडेन महोदय द्वारा किया गया था।
अपवाद- धौलाविरा- धौलाविरा के सूचना पट से एक साथ सिंधुलिपि के 10 वर्णों की प्राप्ति होती है।
मापतौल:- सिंधुवासी माप-तौल से परिचित थे। माप हेतु लकड़ी, हाथी दांत, तांबे के पैमानों का प्रयोग करते थे। तौल के लिए मिट्टी व पत्थर से निर्मित बाटों का प्रयोग किया जाता था, जो 16 के अनुपात में निर्मित होते अर्थात् षोलांश का प्रचलन था। जैसे- 16, 32, 48, 64 ……
सिंधु सभ्यता का पतन:-
सिंधु सभ्यता के पतन में विभिन्न मत प्रचलित हैं-
1. आर्यों का आक्रमण- रामप्रसाद चन्द्रा, वी. गार्डन चाईल्ड, व्हीलर, स्टुअर्ट पिग्गटन
2. बाढ़- मार्शल, अर्नेस्टमेके, एस. आर. राव
3. संक्रामक रोग– केनेडी
4. नदी मार्ग में परिवर्तन- लैम्ब्रिक, माधोस्वरूपवत्स, जी.एफ. डेल्स
5. जलवायु परिवर्तन- आरेल स्आइन एवं अमलानन्द घोष
6. भूतात्विक परिवर्तन- एम.आर. साहनी, राइक्स
7. अदृश्य गाज/भौतिक रासायनिक विस्फोट- एम. दिमित्रियेव
8. पारिस्थितिक परिवर्तन- फेयर सर्विस
व्हीलर ने सिंधु सभ्यता के पतन के लिए ईन्द्र को दोषी माना है तथा रूसी वैज्ञानिक एम. दिमित्रियेव ने महाभारत के युद्ध को जिम्मेदार बताया है।
सिंधु सभ्यता के स्थल :-
सिंधु सभ्यता के 1500 से अधिक स्थल खोजे जा चुके हैं, जिनमें से 8 को ही नगर का दर्जा दिया गया है।
मोहनजोदड़ो, चुन्हदड़ो, लोथल, बनवाली
हड़प्पा, कालीबंगा, धौलाविरा, सुरकोटधा
सिंधु सभ्यता के सर्वाधिक 200 स्थलों की प्राप्ति गुजरात से हुई है।
(1) हड़प्पा सभ्यता स्थल (Harappan Civilization) –
यह मोण्टगोमरी, पंजाब में स्थित सभ्यता है जिसकी खोज 1921 में दयाराम साहनी द्वारा की गई है।
यह सिंधु सभ्यता का खोजा गया प्रथम स्थल व नगर प्रक्रिया में दूसरा प्रमुख सभ्यता स्थल हैं। यहां से एक विशाल अन्नासागर की प्राप्ति होती है, जो हड़प्पा सभ्यता (Harappan Civilization) की सबसे बड़ी इमारत व हड़प्पा सभ्यता (Harappan Civilization) का दुसरा सबसे बड़ा निर्माण माना जाता है।
यहां से एक कब्रिस्तान मिला है, जिसे R-37 नाम दिया गया है। यहां ’’लकड़ी की ताबूत’’ सर्वाधिक अलीकृत मोहरे।
पैरों में सांप दाबे-गरूड़ का चित्र नग्न महिला के गर्भ से पौध निकलता हुआ चित्र जिसे मातृदेवी की संज्ञा दी गई है।
पत्थर का नरबंध (धड़)- गेहूं व जौ के प्रमाण तांबे की ‘इका गाड़ी’ इंटों के बने चबूतरे आदि की प्राप्ति होती है।
मिट्टी के बर्तन मजदूर बैरक, बिखरे हुए नरकंकाल की भी प्राप्ति होती है।
(2) मोहनजोदड़ो सभ्यता स्थल (mohenjo daro) –
यहां लरकाना सिंध (पाक) में सिंधु नदी के किनारे स्थित सभ्यता स्थल है। इसकी खोज 1922 में राखलदास बनर्जी के द्वारा की गई है।
मोहनजोदड़ो (mohenjo daro) का शाब्दिक अर्थ मृतकों का टिला होता है। इससे सिंधु का बाग व सिंध का नखलिस्तान तथा भूतों का प्रोतों का टिल्ला कहा जाता है
किसी विशाल मरूस्थल के मध्य स्थित हरे-भरे क्षेत्र को नखालिस्तान कहा जाता है। यहां से अन्नागार मिला है जो मोजनजोदड़ो (mohenjo daro) का सबसे बड़ा निर्माण है। यहां से सार्वजनिक उपयोग व धार्मिक महत्व के विशाल स्नानागार की प्राप्ति होती है जिसे मार्शल ने तत्कालिन विश्व का आश्चर्य जनक निर्माण बताया है।
एक मोहर से पशुपति की प्रतिमा मिली है, जिसके दांये और हाथी व गेंडा तथा बायें ओर बाघ तथा बैल अंकित है तथा इसके नीचे दो हिरण अंकित किये गये हैं। मार्शल ने इसे मद्य शिव की संज्ञा दी है।
यहां कांस्य नृतकी प्रतिमा (देवदासी) मिली है जिनके दाये हाथ में 24 व बायें हाथ में 4 चुड़ियां पहनी हुई है। इसे देवदासी का संज्ञा दी गई है।
यहां घोड़े के दांत के प्रमाण मिले हैं। अग्नि वेदिका के साक्ष्य तथा हाथ में चाकू लेते हुए, बकरे का पिछा करते हुए मानव का चित्र।
सर्वाधिक मोहरे, कुम्हार के 6 भट्टे, पत्थर के पुजारी के सिर।
गेहूं व जौ प्रमाण, घरों में कुँओं के प्रमाण प्राप्त होते हैं तथा यहां से बिखरे हुए नर कंकाल में कनेड़ी ने मलेरिया रोग की पुष्टि की है तथा यहां से ग्रिड पैटर्न की सड़कें।
हाथी के कजाल खण्ड- मिट्टी के खिलौने सोने के आभूषण आदि प्राप्ति होती है।
सम्पूर्ण सिंधु सभ्यता (indus valley civilization) में प्राप्त सामग्री 50% भाग मोहनजोदड़ो (mohenjo daro) से प्राप्त होते हैं।
(3) चन्हुदड़ो सभ्यता स्थल (Chanudado Civilization)-
सिंध प्रान्त पाकिस्तान से सिंध व उसकी सहायक नदी दशक के किनारे स्थित सभ्यता है।
इसकी खोज 1931 में N.G. मजूमदार के द्वारा की गई। इसका उत्खनन कार्य अर्लेस्ट मैक द्वारा किया गया। यहां सिंधु सभ्यता का प्रमुख औद्योगिक नगर था। जहां से खिलौने निर्माण व मनका निर्माण कारखानों की प्राप्ति होती है।
चन्हुदड़ो से दुर्ग का अभा प्राप्त होता है। यहां से झुकर-झागर के प्रमाण मिलते हैं।
एक ईंट से यहां बिजली का पिछा कर रहे कुत्ते के पद्चिन्ह की प्राप्ति होती है।
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(4) कालीबंगा सभ्यता स्थल (Kalibanga Civilization) –
यह हनुमानगढ़ में घग्घर नदी के किनारे स्थित सभ्यता स्थल है जिसकी खोज 1952-53 ई. में अमलानन्द घोष के द्वारा की गई। इसका व्यापक स्तर पर उत्खनन कार्य 1962-67 के मध्य बी.बी. लाल व बी.के. थापर के द्वारा किया गया है। डाॅ. दशरथ शर्मा ने कालीबंगा को सिंधु सभ्यता की तीसरी राजधानी कहा है। यहां सर्वाधिक कच्ची ईंटों से निर्मित मकानों की प्राप्ति होने के कारण इसे दीन-हीन अथवा ’गरीब बस्ती’ कहा जाता है।
यहां के मकानों में प्राप्त दरारें, भूकम्प के प्रमाण प्रस्तुत करती है।
यहां क्राॅस पद्धति से निर्मित जुते हुए खेतों के साक्ष्य तथा सर्वप्रथम ऊंट के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
सर्वप्रथम शल्य चिकित्सा के प्रमाण यहीं से प्राप्त होते हैं जिसके तहत एक बालक की छिद्रित खोपड़ी प्राप्त हुई जिसे सरगलन रोग था।
भारत के प्राचीनतम तन्दूर के प्रमाण, कुमार देवी की प्रतिमाएं (कुंवारी) मिली है, परन्तु कालीबंगा से मातृदेवी की प्रतिमा प्राप्त नहीं होती है।
यहां एक फर्श अंलीकृत ईंटों, अग्नि वेदिका में पशु हड्डियों की प्राप्ति होती है जो बली प्रथा को दर्शाती है।
स्वास्तिक चिन्ह का प्रयोग वास्तुदोष निवारण हेतु किया जाता है। यहां प्राप्त बेलनाकार मोहरे कालीबंगा का फारस से सम्बन्ध दर्शाती है। यहां से हाथी दांत का कंघा, कांस्य दर्पण, कपड़े में लिपटा उस्तरा प्राप्त होता है।
यहां से ताम्र, चांदी के आभूषण, सर्वाधिक मिट्टी की काली चुड़ियां।
हाथी दांत का पैमाना।
लकड़ी की नालियों के प्रमाण। तीनों प्रकार ’रावधान के प्रमाण (सर्वाधिक कलश)
अण्डाकार कब्र (चिरायु कब्र) की प्राप्ति।
कांस्य की एक मोहर, चने व सरसों के प्रमाण प्राप्त होते हैं।
कालीबंगा (Kalibanga Civilization) का समय 2500 ई.पू. से 1500 ई.पू.।
पतन के कारण :-
अमलानन्द के अनुसार बाढ तथा किसी प्राकृति आपदा के कारण इसका पतन हुआ।
कनेडी ने संक्रामण रोग के कारण इसका पतन बताया है।
गोपीनाथ शर्मा ने कालीबंगा पतन हेतु कच्छ के रन से आने वाली हवा को जिम्मेदार बताया है।
लोथल सभ्यता स्थल (Lothal Civilization) :-
यह गुजरात में भोगवा नदी के किनारे स्थित सभ्यता स्थल है जिसकी खोज 1957 ’’सुरेन्द्र रंगनाथ राव’’ द्वारा की गई।
भोगवा नदी व अरबसागर के किनारे स्थित होने कारण यह सिंधु सभ्यता का प्रमुख बन्दरगाह है।
यहां से एक कृत्रिम बन्दरगाह/जहाजी गोदी/गोदीवाडा/डाकयार्ड की प्राप्ति होती है जो सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा निर्माण था।
लोथल से एक ही सुरक्षा प्राचीर में घिरे हुए दुर्ग तथा आवास मुख्य सड़क पर खुलते हुए दरवाजे, घोड़े की मृण मूर्तियां, हाथी दांत का पैमाना, मनका निर्माण का कारखाना, मिट्टी की नाव के माॅडल, फारस की एक मोहर, मिश्र की मम्की की मिट्टिी का माॅडल, मृतभाण्ड पर धुर्त लोमड़ी का चित्र, अनाज पिसने के ’’पाट’’, समुद्र देवी (सिकोतरी माता) की पूजा के प्रमाण, चावल (धान) + बाजरे के प्रथम साक्ष्य, मिट्टी के मृदभाण्ड व मोहरे, सर्वश्रेष्ठ जन विकास प्रणाली के प्रमाण, अग्नि वेदिकाओं के प्रमाण, तीन पुगल शवधान, चुन्हदछ़ो के समान सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्री प्राप्त होते हैं।
बनवाली सभ्यता स्थल (Baniwali Civilization) :-
यह हिसार (हरियाणा) में प्राचीन सरस्वती/घग्घर नदी के किनारे स्थित सभ्यता स्थल है जिसकी खोज 1973 ई. में R.S. विष्ट (रविन्द्र सिंह) द्वारा की गई।
यहां से तिल एवं सरसों के ढेर मिट्टी के हलनुमा खिलौने, मातृदेवी की लघु मृण मूर्तियां, तारांकित पद्धति से निर्मित सड़क, जल निकास प्रणाली का अभाव व्यापारिक मकान, एक मकान से बासवेशन की प्राप्ति भी हेाती है।
धौलाविरा सभ्यता स्थल (Dholavira Civilization) :-
यह कच्छ गुजरात में मान सहरा व मानहरा के बीच स्थित सभ्यता स्थल है। इसकी खोज 1967-68 ई. में जगपति जोशी के द्वारा की गई।
उत्खनन कार्य- 1990-91 (रविन्द्र सिंह विष्ट) द्वारा किया गया।
धौलाविरा तीन भागों में विभाजित सभ्यता स्थल है जिसमें दो दुर्ग व एक आवास की प्राप्त होती है। यहां से एक खेल का स्टेडियम मिला है जिस पर एक सूचना पट (Shinging Board) की प्राप्ति होती है तथा इस पर सिंधु लिपि लिखे हुए 10 वर्णों की प्राप्ति हुई है।
यहां से सिंचाई के प्रमाण प्राप्त होते हैं।
यहां हेतु यहां तालाबों का निर्माण किया जाता था।
धौलाविरा का शाब्दिक अर्थ- सफेद कुँआ होता है तथा यह भारत का दूसरा विशाल नगर है।
सुरकोटड़ा (Surkotada) :-
यह कच्छ (गुजरात) में स्थित सभ्यता स्थल है जिसकी खोज 1960 ई. जगपति जोशी द्वारा की गई। यह सिंधु सभ्यता के पतन को दर्शाता है।
यहां से घोड़े की अस्थियां व तराजू के पलड़े भी प्राप्त होते हंै।
राखी गढ़ी (Rakhi Garhi) :-
इस सभ्यता स्थल के बारे में सर्वप्रथम मुगल रफीक (1931 ई.) के द्वारा बताया गया, जो जींद (हरियाणा) में सरस्वती (घग्घर) नदी के किनारे स्थित सभ्यता स्थल है। इसकी खोज उत्खनन कार्य 1996-97 में अमरेन्द्र नाथ द्वारा किया गया।
यह सिंधु सभ्यता का सबसे विशाल नगर सभ्यता स्थल है।
सन 2016 में यहां से कब्रिस्तान व युगल समाधि के प्रमाण प्राप्त होते हैं।
रोपड़ (Ropar) :-
यह सतलज प्रान्त (पंजाब) में सतलज नदी के किनारे स्थित सभ्यता स्थल है जिसकी खोज 1951-52 ई. बी.बी. लाल द्वारा की गई।
रोपड़ स्वतंत्र भारत में खोजा गया प्रथम सभ्यता स्थल है।
यहां से मानव के साथ कुत्ते के शवधान के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।
जुनिकरण :-
यह गुजरात में स्थित सभ्यता स्थल है जिसकी खोज 2002-03 में सुभा प्रमाणिक द्वारा की गई।
यहां से दो खेल स्टेडियमों की प्राप्ति होती है जो धौलाविरा से प्राप्त स्टेडियमों से भी उत्कृष्ट माने जाते हैं।
सन् 2002-03 ई. में ही पी.के. त्रिवेदी व पटनायक द्वारा श्रीगंगानगर में तटखानवाला डेरा नाम स्थल की खोज की गई।
2012-13 में एस. के. मित्र द्वारा गोगामेड़ी हनुमानगढ़ में करणपुरा सभ्यता स्थल की खोज की गई, जो सिंधु सभ्यता का नवीनतम सभ्यता स्थल माना जाता है।
गुजरात में सिंधु सभ्यता के सभ्यता स्थल रंगपुर व प्रभास पाटन का सिंधु सभा के और से पुत्रों की संज्ञा दी गई है जो पूर्णतः सिंधु सभ्यता के पतन को दर्शाते हैं।
सिंधु सभ्यता का पतन (Fall of Indus Civilization) :-
- स्टुअर्ट पिग्टन, व्हीलर ’’इन्द्र (पुरन्दर), (पी. चन्द्रा) आर्यों का आक्रमण
- अर्नेस्ट मैके, सुरेन्द्र रंगनाथ राव, मारिल- बाढ़
- कनेडी- ’’मलेरिया’’ या ’’संक्रामण रोग’’
- डाॅ. दिपिप्रियेव (महाभारत पतन का कारण)- अदृश्य गाज, भौतिक एवं रासायनिक विस्फोट
- आरेत स्टाईन, अलमानन्द घोष- जलवायु परिवर्तन
- दयाराम साहनी, राइथ्स- भौतिक परिवर्तन
सिंधु सभ्यता के स्थल (Sites of indus civilization)
- अफगान- शुर्तगोही, माण्डे की गाह
- सिंध प्रान्त- हड़प्पा, डेरा इस्मालपुर, रहमानढेरी, जलालपुर
- पंजाब (पाक)- मोहन जोदड़ो, लहुर जोदड़ो, आमरी, जहुर जोदड़ो
- पंजाब (भारत)- रोपड़, बाडा, सिंघोत, सतलज, चण्डीगढ़
- हरियाणा- बनावली, मीतावली, राखीगढ़ी, भगवानपुरा, भगतराम
- उत्तरप्रदेश- आलमगीरपुर
- महाराष्ट्र- दैयमाबाद
- गुजरात- रंगपुर, प्रभास पाटन, रोजड़ी, लोथल, धौलाविरा, जुनिकरण, भगवानपुरा, सुरकोटडा
- ब्लुचिस्तान (पाक)- सुत्कागेडोर, सुत्कागोह, बालाकोट, डाबरी।
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